पिंक बॉल का इस्तेमाल सिर्फ डे-नाइट टेस्ट में होता है.Image Credit source: Nick Potts/PA Images via Getty Images
पर्थ टेस्ट में टीम इंडिया की जीत के बाद हर किसी को इंतजार दूसरे टेस्ट मैच का है. एडिलेड में ये मुकाबला शुक्रवार 6 दिसंबर से शुरू होगा. ये मुकाबला इसलिए भी खास है क्योंकि भारत-ऑस्ट्रेलिया 4 साल बाद डे-नाइट टेस्ट मैच में टकरा रहे हैं. इससे पहले दिसंबर 2020 में एडिलेड में ही दोनों टीम के बीच डे-नाइट टेस्ट मैच खेला गया था. डे-नाइट टेस्ट मैच का मतलब है गुलाबी गेंद से पूरा एक्शन होगा, न कि लाल बॉल से. अब पिंक बॉल सिर्फ रंग ही नहीं, बल्कि कई और मामलों में भी पारंपरिक लाल गेंद से अलग होती है और इसकी कुछ ऐसी खासियतें हैं जो पिंक बॉल को बल्लेबाजों के लिए चुनौतीपूर्ण बनाती है, जिसमें कई बार इसे देखने में होने वाली परेशानी भी है.
डे-नाइट टेस्ट के लिए पिंक बॉल ही क्यों?
करीब 10 साल पहले ही डे-नाइट टेस्ट मैच की शुरुआत हुई थी. कई ट्रायल्स के बाद आखिरकार इस टेस्ट के लिए पिंक बॉल का चयन किया गया. इससे पहले नारंगी और पीले रंग की गेंदों पर भी चर्चा हुई थी लेकिन ट्रायल्स में ये पाया गया था कि पिंक बॉल को शाम के और रात के वक्त देखना ज्यादा आसान है. जाहिर तौर पर रेड बॉल को देखना बिल्कुल भी आसान नहीं था, खास तौर पर फील्डर्स के लिए, जिन्हें ऊंचे कैच भी लेने पड़ते हैं और रात के अंधेरे आसमान में उसे देखकर कैच लेना आसान नहीं था. इसलिए दूसरे रंग पर विचार हुआ और पिंक बॉल पर सहमति बनी थी. इसके बाद से ही कई पिंक बॉल टेस्ट खेले जा चुके हैं और इसके बाद भी बल्लेबाजों के लिए चुनौती कम नहीं हुई है.
रेड बॉल से कितनी अलग है पिंक बॉल?
अब सवाल ये है कि पिंक बॉल क्यों बल्लेबाजी के लिए ज्यादा मुश्किल साबित होती है? टीम इंडिया के लिए 3 पिंक बॉल टेस्ट खेल चुके दिग्गज बल्लेबाज चेतेश्वर पुजारा ने इसके बारे में समझाया. ईएसपीएन-क्रिकइंफो को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि गुलाबी गेंद पर पेंट की, जिसे लैकर कहा जाता है, कई अतिरिक्त परतें होती हैं. यानि रेड बॉल की तुलना में उसमें ज्यादा लैकर लगाया जाता है. ऐसा इसलिए ताकि खेलने के दौरान गेंद का रंग जल्दी नहीं उतरे. यही गेंदबाजों के लिए मददगार होता है. अतिरिक्त पेंट के कारण जब भी गेंद अपनी सीम पर टप्पा खाती है या फिर चमकदार हिस्सा पिच पर गिरता है तो गेंद ज्यादा फिसलकर आती है. ऐसे में बल्लेबाजों के पास रिएक्शन टाइम रेड बॉल की तुलना में कम होता है. अब पेंट जल्दी निकलता नहीं है तो ये चुनौती ज्यादा वक्त तक बनी रहती है.
चमक के बावजूद देख पाना मुश्किल
चुनौती यहीं खत्म नहीं होती. पेंट की तमाम कोटिंग और चमक के बावजूद इस गेंद को देखना मुश्किल हो जाता है. पुजारा ने समझाया कि दिन के वक्त शुरू होने वाला मैच चलता तो रात तक है लेकिन इसमें शाम का एक वक्त ऐसा भी आता है, जब गेंद को देखना मुश्किल होता है. अंग्रेजी में इसे कहते हैं ट्वाइलाइट और हिंदी में गौधूलि. साधारण शब्दों में कहें तो वो वक्त जब सूर्यास्त लगभग हो चुका होता है लेकिन हल्की रोशनी बनी रहती है और साथ ही रात का अंधेरा भी धीरे-धीरे फैलता रहता है. इस वक्त उजाला कम हो चुका होता है और स्टेडियम की लाइट भी पूरी तरह नहीं जलती. ऐसे में इस वक्त गेंद को देख पाना बिल्कुल आसान नहीं होता. इसलिए पिंक बॉल टेस्ट में इसे ही सबसे मुश्किल वक्त माना जाता है. इस वक्त गेंद स्विंग भी ज्यादा होती है और इसलिए विकेट भी ज्यादा गिरते हैं.